तद्वाग्विसर्गे जनताघविप्लवे

यस्मिन् तिश्लेकमवद्धवत्यपि ।

नामान्यनन्तस्य यशोऽङ्कितानि यत्

शृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः ॥

संतपुरुष कुठलंही साहित्य ऐकतात , गातात किंवा त्याचा स्वीकार करतात . मग ते योग्य रितीने पदबद्ध केलेलं का नसेना ? फक्त त्याच्या प्रत्येक श्लोकात ईश्वरनामाचा महीमा वर्णिलेला असावा .

सत्पुरुष कोई भी साहित्य सुनते हैं , गाते हैं और उस का स्विकार करते हैं । भले ही वह उचित रितीसे पदबद्ध न किया गया हो । बशर्ते उस के हर श्लोक में ईश्वरनाम का महिमामंडन हो ।

Saintly persons ( sadhus) hear , recite , and accept any literature , even though it is imperfectly crafted ( abaddhavat) , provided each line ( pratislokam) of such a writing describes the glory of the names of God provjeriti.