|| मृत्युंजय कवचं ||
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भैरव उवाच :
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श्रृणुष्व परमेशानी कवचम मनमुखोदिथं
महा मृत्यंजयस्यास्य न देयं परमद्धभुतं || १||
यम दृत्वा यम पठित्वा च यम श्रृत्वा कवचोतमम
त्रैलोक्याधिपठिर भुत्वा सुखितोस्मि महेश्वरी. ||२||
तदेव वर्णयिश्यामी तव प्रित्या वरानने
तदापि परमम तत्वं न दातव्य दुरात्मने ||३||
ॐ अस्य श्री महामृत्युंजय कवचस्य
श्री भैरव ऋषी गायत्री छंद
श्री मृत्युंजय रुद्रो देवता ॐ बीजं
ज्रं शक्ती स कीलकं हाउम ईती तत्वं
चतुर्वग फल साधने पठेत विनियोग: ||४||
ॐ चंद्र मंडल मध्यस्थे रुद्रमाले विचित्रीते,
तत्रस्थं चिंतयेथ साध्यं मृत्युं प्राप्नोती जिवती. ||०५||
ॐ ज्रं सा हाउम शिर पातु देवो मृत्युंजय मम
श्री शिवो वै ललाटं च ॐ हाउम ब्रुवौ सदाशिवा ||०५||
निलकंठो वतान नेत्रे कपर्दी मे वताच छृती
त्रिलोचनो वता गंडौ नासं मे त्रिपुरांतका: ||०७||
मुखं पियुष घट ब्रद औष्ठो मे कृतीकांबरा
हनौ मे हटकेशनो, मुखं बटुक भैरव ||०८||
कंधरां कालमधनो गळं गण प्रियोवधु
स्कंधौ स्कंद पिता पातु हस्तौ मे गिरेषोवतु ||०९||
नासां मे गिरिजानाथा पायादंगुली सम्युथान
स्तनौ तारपती पातु, वक्ष पशुपर्ती मम ||१०||
कुक्षी कुबेरवदन पार्श्वौ मे मारशासना
सर्व पातु तय नाभिं शुलि पृष्ठं ममावतु ||११||
शिश्नंमे शंकरा पातु गुह्यं गुह्यकवल्लभा
कटीं कालान्तक पायाद ऊरु मे अंधकाघातका ||१२||
जागरूको वथा जानु जंघे मे काल भैरव
गुल्फो पायत जटाधारी, पादौ मृत्युंजयो आवतु. ||१३||
पदादी मुर्थ पर्यंतं सद्योजातो ममवतु
रक्षा हिनंं नाम हिनं वपु पात्व मृत्येश्वरा ||१४||
पुर्वं बल विकरणं दक्षिणे कालशासना
पश्चिमे पर्वतीनाथां उत्तरे माम मनोरमना: ||१५||
ऐशान्यामिश्वरा पायादाग्नेयांग्नि लोचना
नैऋत्यं शंभुरव्यान माम वायव्यां वायु वाहना ||१६||
उर्ध्वं बलप्रमधना पाताळे परमेश्वरा
दश दिक्षू सदा पातु महामृत्युंजयश्च माम ||१७||
रणे राजकुले द्युते विषमे प्राण संशये
पायाद ॐ ज्रं महा रुद्रौ देव देवो दशाक्षरा ||१८||
प्रभाते पातु माम ब्रम्हा मध्याने भैरवो आवतु
सायं सर्वेश्वरा पातु निशायां नित्य चेतना ||१९||
अर्धरात्रे महादेवो निशांदे माम महोदया
सर्वदा सर्वता पातु ॐ ज्रं स हाउम मृत्यंजय. || २० ||
इतिदमं कवचं पुर्णम त्रिशुलोकेश दुर्लभं
सर्व मंत्र मयं गुह्यं सर्व तंत्रेशु गोपितं ||२१||
पुण्यं पुण्यप्रदमं दिव्यं देव देवादी दैवतं
या इदं च पठेन मंत्रं कवचं वाचयेत तथा ||२२ ||
तस्य हस्ते महादेवी त्रंबकस्य अष्ठसिध्यये
रेणेदृत्व चरेत युधं हत्वा शत्रूंजयं लभेत. ||२३||
जपं कृत्व गृहेदेवी संप्राप्यस्यती सुखं पुन्हा
महाभये महारोगे महामारी भये तथा
दुर्भिक्षे शत्रु संहारे पठेत कवचं आदरात. || २४ ||
इति श्री महामृत्युंजय कवचं संपुर्णं