योगरतो वाभोगरतोवा,सङ्गरतो वा सङ्गवीहिनः

यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं,नन्दति नन्दति नन्दत्येव॥

कोई योग में लगा हो या भोग में, संग में आसक्त हो या निसंग हो, पर जिसका मन ब्रह्म में लगा है वो ही आनंद करता है, आनंद ही करता है।

Someone is engaged in yoga, indulgence, is enamored with the Sang or is Nisang, but he who has his mind in the brahm, only he enjoys, he only bliss.